परिचय
जन्म तिथि | 23 जनवरी सन. 1897 |
जन्म स्थान | कटक शहर, ओड़िशा, भारत |
पिता का नाम | जानकीनाथ बोस |
माता का नाम | प्रभावती |
मृत्यु | 18 अगस्त सन. 1945 |
प्रसिद्धि | स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय हिन्द फौज के प्रधान नेता |
नेता जी सुभाष चन्द्र बोस गुलाम भारत देश के स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने मात्र पंद्रह साल की उम्र में ही विवेकानंद साहित्य का अध्ययन कर लिया था। उनका “जय हिन्द” का नारा पूरे भारत देश का राष्ट्रीय नारा बना। 21 अक्टूबर सन. 1943 को उन्होंने आज़ाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति होने के माध्यम से स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार की स्थापना की और सन. 1944 को अंग्रेजों पर आज़ाद हिन्द फौज के द्वारा आक्रमण कर कई भारतीय प्रदेशों को आज़ाद भी कराया।
जन्म
सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन. 1897 को ओड़िशा के कटक शहर में एक कुलीन परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम प्रभावती और उनके पिता जानकीनाथ बोस था, जो कटक शहर के मशहूर वकील थे। सुभाष चन्द्र अपने 8 भाई और 6 बहनों में अपने माता-पिता के पाँचवें बेटे थे।
शिक्षा
सुभाष चन्द्र ने कटक के प्रोटेस्टेण्ट यूरोपियन स्कूल से अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण की और अपनी आगे की शिक्षा के लिए सन. 1909 में रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल से शिक्षा शुरू की। सन. 1915 में बहुत बीमार होने के बावजूद भी उन्होंने माध्यमिक शिक्षा की परीक्षा में दूसरी श्रेणी में स्थान प्राप्त किया। सन. 1916 में दर्शनशास्त्र की पढाई के दौरान अध्यापक व छात्रों के बीच हुए झगड़े में उन्होंने छात्रों का नेतृत्व किया, जिसके कारण उन्हें एक साल के लिए कॉलेज से निकाल दिया गया।
एक साल बाद सुभाष चन्द्र ने सेना में जाने के लिए परीक्षा दी, परन्तु नजर कमज़ोर होने के कारण उन्हें सफलता नहीं मिली। अपने मन को मारकर उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज में अपना दाखिला कराया, उनका मन सेना में जाने के लिए था। सुभाष चन्द्र ने अपने खाली वक्त का इस्तेमाल करते हुए टेरीटोरियल आर्मी के लिए परीक्षा दी और उसे सफलतापूर्वक पार कर लिया। माध्यमिक शिक्षा की तरह बी.ए में भी कम नम्बर ना आएं इसके लिए उन्होंने दिन-रात पढाई शुरू की और बी.ए की परीक्षा को प्रथम श्रेणी से उतीर्ण किया। सुभाष चन्द्र के पिता चाहते थे कि उनका बेटा आईसीएस बने, इसलिए अपने पिता की इच्छा को स्वीकार कर सुभाष चन्द्र 15 सितम्बर सन. 1919 को आईसीएस की पढाई के लिए लन्दन चले गए और सन. 1920 को आईसीएस की परीक्षा में सफल होकर चौथा स्थान प्राप्त किया।
सुभाष चन्द्र स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों का अनुसरण करते थे, इसलिए वह आईसीएस बनकर अंग्रेजों की गुलामी नहीं करना चाहते थे। अत: उन्होंने 22 अप्रैल सन. 1921 को आईसीएस से त्यागपत्र दे दिया। उनकी माँ के द्वारा मिले एक पत्र में उन्होंने पढा कि “पिता एवं परिवार के सदस्य क्या कहेंगे उन्हें इसकी परवाह नहीं , परन्तु उनको अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है”। जून सन. 1921 को सुभाष चन्द्र अपनी मानसिक व नैतिक विज्ञान की डिग्री के साथ भारत वापस लौट आए।
प्रारंभिक कार्य
20 जुलाई सन. 1921 को सुभाष चन्द्र पहली बार गाँधी जी से मिले और गाँधी जी की कहने पर वे कोलकाता जाकर दासबाबू से मिले। सन. 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी बनाई और विधानसभा के अन्दर अंग्रेजों के विरोध में कोलकाता महापालिका का चुनाव लड़कर जीते और दासबाबू कोलकाता के महापौर बने। दासबाबू ने सुभाष चन्द्र को महापालिका का प्रमुख कार्यकर्ता बनाया। अपने कार्य को संभालते हुए सुभाष चन्द्र ने महापालिका की कार्यविधि को ही पूरा परिवर्तित कर दिया और स्वतंत्रता संग्राम में प्राण देने वाले लोगों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में व्यवसाय उपलब्ध कराया।
सुभाष चन्द्र बहुत जल्द ही देश के महत्वपूर्ण नेता बन गए। 26 जनवरी सन. 1931 को कोलकाता में राष्ट्रीय ध्वज लहराते हुए सुभाष चन्द्र बहुत बड़े मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे। उस वक्त उन पर अंग्रेजों ने लाठियां चलवाई और उन्हें घायल अवस्था में ही कारावास में बंद कर दिया गया। जब गाँधी ने अंग्रेजों की सरकार से समझौता कर लिया, तब सुभाष चन्द्र सहित सभी कैदियों को कारावास से आज़ादी मिली, परन्तु भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को अंग्रेजों के कारावास से आज़ादी नहीं मिली। भगत सिंह के रिहा न होने से निराश सुभाष चन्द्र ने गाँधी को समझौता तोड़ने के लिए कहा, परन्तु वचन देने के कारण बापू पीछे नहीं हट सके और उन वीर क्रांतिकारियों को फ़ासी हो गई। इसी वजह से सुभाष चन्द्र बापू से बहुत नाराज़ हुए और उनसे अलग हो गए।
सन. 1925 में गोपीनाथ साहा नामक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधिकारी को मरना चाहता था, परन्तु उसने गलती से अर्नेस्ट डे नाम के व्यापारी की हत्या कर दी। उस व्यापारी की हत्या के आरोप में गोपीनाथ को फांसी हुई, जिसके कारण सुभाष चन्द्र बहुत दु:खी हुए और गोपीनाथ के शव को मंगवाकर उनका अंतिम संस्कार किया। सुभाष चन्द्र के द्वारा अंतिम संस्कार किए जाने पर अंग्रेजों ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाष चन्द्र क्रांतिकारियों को उत्साहित करते हैं। अत: सुभाष चन्द्र को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर बिना कोई मुक़दमा चलाये म्याँमार के माण्डले कारावास में बंदी बनाकर भेज दिया। उसी दौरान 5 नवंबर को देशबंधु चित्तरंजन दास की मृत्यु हो गई, जिनकी खबर सुभाष चन्द्र को कारावास में रेडियो के माध्यम से प्राप्त हुई। माण्डले कारावास में रहते हुए सुभास चन्द्र की तबियत बिगड़ गई, उन्हें टीबी की बीमारी हो गयी। अंग्रेज सरकार ने सुभाष चन्द्र को रिहा करने से मना कर दिया और रिहा करने के लिए शर्त रखी कि वे इलाज के लिए यूरोप चले जायें, लेकिन अंग्रेज सरकार ने यह नहीं बताया कि इलाज के बाद सुभाष चन्द्र भारत कब वापस लौटेंगे, इस वजह से सुभाष चन्द्र ने यह सब स्वीकार नहीं किया। बाद में ज्यादा तबियत बिगड़ने से जेल अधिकारियों को लगा कि शायद सुभाष चन्द्र कारावास में ही प्राण न त्याग दें, इसलिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। रिहा होने के बाद सुभाष चन्द्र इलाज के लिए डलहौजी चले गये।
सन. 1930 के कोलकाता चुनाव में सुभाष चन्द्र को महापौर चुना गया, जिसके कारण अंग्रेजों को उन्हें कारावास से रिहा करना पड़ा। सन. 1932 में सुभाष चन्द्र को फिर से कारावास हुआ और इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल रखा गया, जहाँ उनकी तबियत बहुत खराब हो गई, जिसके कारण चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष चन्द्र ने यूरोप जाना मंजूर किया।
यूरोप में सुभाष चन्द्र की मुलाकात इटली के मुसोलिनी से हुई, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी सहायता करने का वचन दिया। उन्ही दिनों जवाहरलाल नेहरु की पत्नी की मृत्यु ऑस्ट्रेलिया में हो गई और सुभाष चन्द्र ने वहाँ जाकर उन्हें धैर्य बंधाया।
प्रेम विवाह
सन. 1934 सुभाष चन्द्र ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने गए हुए थे, उन्हें अपनी पुस्तक को लिखने के लिए एक अंग्रेजी टाइपिस्ट की आवश्यकता थी। उनके मित्र ने एमिली शेंकल (ऑस्ट्रियन महिला) से मुलाकात करवा दी। सुभाष चन्द्र को एमिली शेंकल की ओर आकर्षित हुए और सन. 1942 में दोनों ने हिन्दू विधिसे विवाह किया। सुभाष चन्द्र की बेटी ने वियेना में जन्म लिया, जिसका नाम सुभाष चन्द्र ने अनीता बोस रखा।
जीवन कार्य
सन. 1938 में सुभाष चन्द्र कांग्रेस के अध्यक्ष के पद के लिए गाँधी द्वारा चुने गए, परन्तु गाँधी को उनका कार्य करने का तरीका पसंद नहीं था। सन. 1939 में दोबारा चुनाव होने का वक्त आया तो गाँधी ने पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष पद के लिए चुना, इस चुनाव में सुभाष चन्द्र को 1580 मत मिले जबकि सीतारमैया को 1377 मत मिले। इस कारण गाँधी ने अपने साथियों से कहा कि जो सुभाष चन्द्र के कार्य से सहमत नहीं हैं वो पीछे हट सकते हैं, तभी कांग्रेस के 14 में 12कार्यकर्तायों ने इस्तीफा दे दिया। 29 अप्रैल सन. 1939 को कांग्रेस से परेशान होकर सुभाष चन्द्र ने अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया और 3 मई सन. 1939 को फॉरवर्ड ब्लाक नाम की पार्टी बनाई जो जल्द ही स्वतंत्र पार्टी बन गई।
उसके उपरांत भारत गुलामी का प्रतीक स्तंभ सुभाष चन्द्र ने अपने सहयोंगियों के साथ मिलकर ध्वस्त कर दिया, जिसके परिणामस्वरुप सुभाष चन्द्र सहित उनके सभी नेताओं को अंग्रेजों ने कारावास में बंद कर दिया। सुभाष चन्द्र के द्वारा कारावास में किए गए आमरण अनशन से मजबूर होकर उन्हें रिहा कर दिया गया, लेकिन सुभाष चन्द्र को उनके घर में बंद कर बाहर सिपाही तैनात कर दिए गए। 19 जनवरी सन. 1941 को उन्होंने एक पठान का वेश धारण कर सिपाहियों को चकमा देते हुए उनकी कैद से आज़ाद हो गए।
21 अक्टूबर सन. 1943 को सुभाष चन्द्र ने सिंगापुर में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द की स्थापना की और स्वयं उसका मोर्चा संभाला। सुभाष चन्द्र आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान नेता भी बन गये। उसके उपरांत सुभाष चन्द्र ने पूर्वी एशिया में अनेक भाषण दिए और आज़ाद हिन्द फौज में सहयोग के लिए प्रेरित किया। उन्होंने वहाँ पर अपने भाषण में सन्देश दिया “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा”।
6 जुलाई सन. 1944 को सुभाष चन्द्र ने आज़ाद हिन्द रेडियो पर भाषण देते वक्त अपने भाषण में गाँधी जी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया और उनसे आशीर्वाद माँगा।
लापता या मृत्यु
18 अगस्त सन. 1945 को द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद रूस से मदद के लिए सुभाष चन्द्र बोस मंचूरिया की तरफ हवाई जहाज से जा रहे थे। उसी दौरान वह लापता हो गए और उसके बाद कभी नहीं दिखे। 23 अगस्त सन. 1945 को रेडियो पर बताया गया कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, हवाई जहाज के पाइलेट और कई अन्य लोग ताइहोकू हवाई अड्डे के पास विमान दुर्घटना में जलकर मारे गए।
सुभाष चन्द्र बोस 18 अगस्त सन. 1945 के बाद कहाँ लापता हो गए यह आज भी भारतीय इतिहास में एक रहस्य है। उनकी मृत्यु को लेकर आज भी विवाद बना हुआ है।